विगत 66 वर्ष पूर्व दे स्वतंत्र हुआ। स्वतंत्रता के इतने वर्ष पश्चात् भी देश या यों कहे कि ‘राष्ट्र जीवन की दिशा’ निश्चित नहीं हो पायी। यदि हम चाहते तो भारतीय शिक्षा पद्धति द्वारा पराधीनता तथा परकीयता के समस्त कलंक धो दिये होते, परन्तु हम ही आत्म विस्मृत हो कर स्व को तिलांजलि देकर अनजाने राष्ट्र को गढ़ने में लग गये। दुनिया जानती है कि छोटे से छोटा निर्माण कार्य शुरू करने के पूर्व उसकी संकल्पना तथा मानचित्र बनाना पड़ता है। खेद की बात है कि देश के राजनेता तथा राष्ट्र सेवा का व्रत लेने वाले ऐसा नहीं कर पायें। उपरोक्त क्रियाओं का प्रत्यक्ष प्रमाण सामने है। कोई क्षेत्र, संस्था, संगठन को देखने पर ज्ञात होता है कि अधिकाशं नेतृत्व चरित्रहीन तथा गलत साधानों को सम्बल बना कर कार्य कर रहा है। सारे नैतिक मूल्य धूल-धूलरित होते जा रहे है। आपाद् मस्तक भ्रष्टाचार का बोलबाला है।
सभी व्यक्ति इस बात की चर्चा करते है कि देश से नैतिकता का प्रायः लोप होता जा रहा है लेकिन ध्यान देने योग्य बात है कि सभी व्यक्ति नहीं चाहते है कि आदर्श आचरण तथा व्यवहार का श्री गणेश दूसरे के द्वारा हो, परन्तु स्वयं येन केन प्रकारेण साधन, सुविधा, सम्मान अर्जित कर लें।
वर्तमान में राष्ट्रपति से लेकर सामान्य तक कथनी करनी में साम्य नहीं रख पाते है। गुरू की गुरूता समाप्त होती जा रही है। पढ़े-लिखे लोगों के आत्म केन्द्रित जीवन देखकर लोग घृणा करने के लिए बाध्य हो रहे है। किसी व्यक्ति को यह आभास नहीं हो रहा है कि मेरा कर्Ÿाव्य क्या है ? सिद्धान्त स्वीकार करना तथा पालन करना बेटी-बहू सदृश्य है। जिस प्रकार जो बेटी-बहू-बहन-भगिनी बन गयी उसे बदला या छोड़ा नहीं जा सकता, उसी प्रकार संगठन, पार्टी की भी मान्यता रहनी चाहिए, परन्तु व्यवहार में प्रतिदिन आयाराम गयाराम का आचरण आचरित होता है। जो न्यायालय न्याय देता है उसके दायरे में रहने वाले वकील, ताईद, पेशकार, न्यायाधीश प्रायः न्याय का गला घोट कर उत्कोच का प्रचलन कायम कर रहे है। जहाॅ का न्याय तथा नैतिकता रूपी ईश्वर नीलाम हो जाय, अथवा क्रय-विक्रय के व्यवहार में आ जाये, तो देश का भला कहां से होगा ? उच्च पदाधिकारी बनने की कामना इस कारण नहीं है कि देश राष्ट्र की सेवा करूंगा या मातृभूमि के प्रति कर्Ÿाव्य, मां के सपूत की तरह निभाऊंगा। वरन् इसलिए प्रतियोगी परीक्षाओं में सम्मिलित हुआ जाता है कि कामिनी कीर्ति, कंचन की हवस पूरी होगी। बहुतांश सम्बन्ध आदर्श रहित अर्थहीन होते जा रहे है। न्यायालय में मुकदमा जाति के तथा परिवार के लोग लड़ते है। ईष्र्या द्वेष का भाव सहकर्मियों एवं परिवार के आसपास वाले तथा ग्रामीणों के मध्य व्याप्त है। जो पदाधिकारी उत्कोच लेकर गलत कार्य करते है, वे भूल जाते है कि वे अपने तथा समाज के नजर में गिर गये हैं या गिरते जा रहे हैं। संस्था, संगठन के लोग भी चापलूसी पसन्द करने लगे है और योग्य कार्यकर्Ÿााओं का अपमान तथा तिरस्कार करने में गौरव का अनुभव करते है। ऐसी बात नहीं है कि राष्ट्र जीवन में अचानक खराबी आ गयी हो। इसके लिए सभी दोषी है। जाने-अनजाने सबके प्रयास से राष्ट्र इस दुरावस्था को प्राप्त हुआ है। शिक्षण क्षेत्र में व्याप्त अनुशासन-हीनता तथा भ्रष्टाचार ने स्वतन्त्रता एवं उच्छखलता के मध्य की रेखा धूमिल कर दी है। शिक्षक पढ़ाना नहीं चाहते है, छात्र पढ़ना नहीं चाहते हैं। परीक्षा में चोरी वैध हो यह इच्छा प्रबल होती जा रही है। अध्यापकों की हस्ताक्षरित काॅपी वर्ष में एक दो बार भी देखने को मिल जाये तो छात्र, अभिभावक तथा शिक्षण केन्द्र भी अपने को धन्य मानेंगे। विदेशी नकल की सीमा भी पार हो गयी है। जिस धर्म के अन्तर्गत सारे ब्रह्माण्ड का संचालन होता है उसे लोग साम्प्रदायिकता शब्द से अलंकृत कर उपेक्षा के भाव से देखते है। धर्म ही एक आधार है, जिसके द्वारा सभी मानव निदेशित और नियंत्रित होते है, अन्यथा अतिमानव या सुपर हुमन कौन होगा, जो सभी का मार्ग निर्देशित तथा नियंत्रण करे एवं स्वयं निष्कलंक हो। सामान्य व्यवहार को सरल बनाने हेतु सोना इत्यादि वस्तुआंे को मनुष्य ने साधन के रूप में अपनाया था, परन्तु अब ऐसा हो गया कि व्यक्ति के गुण तथा आदर्शों को मान्यता न देकर लोग स्वर्णाभूषण को ही महत्व देते है। जो साधन था साध्य बन गया है। गुप्तचर विभाग में कार्य करने वाले बन्धुओं को निर्देश दिया जाता है कि चोर, डाकू तथा तस्कर एवं कुछ संगठन के प्रमुखों की सूची बनावें तथा उनकी गतिविधि पर निगरानी रखें। किन्तु यह नहीं करते कि देश में अच्छे लोगों की सूची बनाये तथा राष्ट्र सेवा में उन्हें सहभागी बनायें। रंक से राजा बनने वाले कुछ पदाधिकारी और सामाजिक कार्यकर्Ÿाा का भी लेखा-जोखा रखने की आवश्यकता नहीं महसूस करते।
एक बात और सोचने योग्य है कि शायद ही कोई व्यक्ति ऐसा है जो भाषा विषय का जनकार होते हुए, कुछ आदर्शों तथा महापुरूषों के सम्बन्द में न जानता हो। समस्या यह नहीं है कि कौन क्या जानता है या पढ़ा है अथवा बोलता है। बात ऐसी है कि यह कितना करता है। बुक स्टालों पर अच्छे स्तर की पुस्तकें कम बिकती है, अर्थात् खरीदारों का स्तर गिर रहा है। एक आदर्श पहले था, पूर्व के महापुरूष जो सिद्धान्त रखते थे, वही आचरण करते थे। जैसे सत्यवादी, दानी, त्यागी शब्द हरिशचन्द्र, कर्ण, दधीचि इत्यादि के पर्याय बन गये है।
उपरोक्त व्यथा के अन्तराल में कुछ कटु सत्य है। हम अपना आत्म-विश्लेषण करें हर नियम के अपवाद होते है। उस प्रकार के व्यक्तित्व के प्रति उपरोक्त बातें लागू नहीं होती है। वे श्रद्धा तथा धन्यवाद के पात्र है जो भ्रष्ट वातावरण में भी अपने धर्म तथा नैतिकता को पूर्वजों की धरोहर के रूप में संजोकर रखते है या रखे है।
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